स्याही के दो बूँद

एक ही जगह बने, एक ही डिबिया में भरे गए
अक्षर बनने को तत्पर, दो बूँद स्याही के विदा हुए
एक ही तत्व, एक ही रंग, बचपन से सदा रहे संग
कितना अच्छा हो यदि, एक ही शब्द के बने अंग
अंकित होकर एक पृष्ठ पर, यह साथ अमर हो जाएगा
दो अलग वर्ण, अपूर्ण मगर, मिलकर एक अर्थ नया दे जाएगा
मन में ही यह बात थी, अभी स्वर भी न उसे मिल पाया था
पर दूर कहीं चौंका एक स्वप्न, और नियति थोडा मुस्काया था

डिबिया खुली, मुहूर्त बनी, दोनों बढे-चले हँसते गाते
कितने अबोध, क्या ज्ञात उन्हें, हर स्याही शब्द न बन पाते
लिखने से पहले कभी-कभी, जब कलम झाड दिए जाते हैं
फिर सबसे उत्सुक हो आगे जो, वो बूँद धुल बन जाते हैं,
नयी परिभाषा रचने को, एक शब्द बनना था जिनका धाम
पर एक गिरा झड़कर नीचे, दूसरा पृष्ठ पर बना पूर्ण-विराम
एक धुल बना, एक अर्थहीन, दोनों का मन भर आया था
नीले स्याही से टपके थे पर उसे लाल नियति ने पाया था

जो डिबिया से ही थे सीधे गिरे, वो बूँद जरा झल्लाते थे
अपनी गाथा उन्हें सुना, उनको वे समझाते थे
शब्द रचने वाले नोक-देव, जो कलम मंदिर में स्थापित हैं
उन्हें सिक्त करने की चाह लिए, हम भी तीर्थ पर थे निकले
पर देव-दर्शन से पहले ही, धरती ने सब रस सोख लिया
तुम्हे विलाप का अधिकार नहीं, जब आये नोक सिंचित करके
अब धुल बने या बने चिन्ह, ये सब तो है बस एक माया
हुआ स्तब्ध बूँद, रो पड़ा स्वप्न, अट्टहास नियति ने फिर लगाया

टिप्पणियाँ

  1. पोस्ट बहुत अच्छी लगी| धन्यवाद!

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  2. उम्दा रचना. साधुवाद.
    जारी रहें.

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  3. आपकी पोष्ट पढकर प्रसन्नता हुई।जारी रखें। आभार!

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  4. धन्यवाद !! आशा है आगे भी आप सबको संतुष्ट कर पाऊं

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  5. शुभकामनाएँ। इसी तरह लिखते रहिए।

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  6. bohot hi nayi soch..... awesome poem..
    http://jindalshweta.blogspot.com

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  7. इस नए सुंदर से चिट्ठे के साथ हिंदी ब्‍लॉग जगत में आपका स्‍वागत है .. नियमित लेखन के लिए शुभकामनाएं !!

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