न्याय - सूत्र (१)
ज्ञान का साधन है प्रमाण और प्रमेय ज्ञान की वस्तु
पक्का न हो पता तो संशय, प्रयोजन उद्देश्य या हेतु । १-४
दृष्टान्त है चित्रण ऐसा, दक्ष अदक्ष सब माने
जैसे आग से निकले धुआँ, पढ़ अपढ़ सब जाने । ५
सिद्धान्त है विषय विषय का, जो पढ़े वो ही जाने
पंचभूत या सप्तधातु को, विरला ही पहचाने। ६
अवयव है ऐसा निष्कर्ष जहाँ स्वयं से देखे न जाने
दूर पहाड़ पर धुआँ उठे, तो स्वतः आग ही माने। ७
तर्क लगाकर उसको जाने, जिसका नहीं स्वतः है ज्ञान
विपरीत को ला ला काटे, और हो जाए संज्ञान। ८
निर्णय करता संशय का नाश, दोनो पक्ष को सुनकर
एक पक्ष को निश्चित करता, जिसका तर्क हो बढ़कर। ९
वाद हुआ एक वार्तालाप, जो होता सत्य को लक्ष्य कर
तर्क लगाकर बात को जाँचे, ध्येय नहीं स्वयं के जय पर । १०
सत्य को त्याज यदि लक्ष्य है जय पर, वाद को जल्प फिर जानो
वितणडा में बिन निज पक्ष के, प्रतिपक्ष को भर भर तानो। ११-१२
हेत्वभास में उल्टा पुल्टा बस कुतर्क लगाकर बोलें
लौ को बहता देख आग को ठंडा, पानी सा बोलें। १३
छल में जान कर एक शब्द का दूजा अर्थ टटोले
नवग्रह को नौ न समझे, एक नया ग्रह को बोले। १४
एक आयाम के समानता पर आपत्ति को जाति जाने
मानव निर्मित शब्द और घट तो, दोनो को अनित्य माने। १५
निग्रहस्थान बहुतेरे होते और इन से पराजय निश्चित,
अपने बात को आप ही काटे, होते तुरंत बहिष्कृत। १६
सोलह पदार्थ ये न्याय सूत्र के, श्री अक्षपाद गौतम के
तत्वज्ञान को सहज ही पाए, इनको ठीक समझ के।।
मिथ्यज्ञान को ये छुड़ाए, उस से हो ये दोष सब चूर
उसके बाद प्रवृति जाए, फिर जन्म ख़त्म, दुःख दूर ।
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