रेस्तरां में एक शाम

जिंदगी की मेनू से एक दोस्त आर्डर किया था
और कहा था वेटर से, गुस्सा थोडा कम डालना

ईर्ष्या रत्ती भर भी नहीं, मगर भरोसा हो भरपूर
समझदारी का स्वाद हो और जो जाने थोडा मुस्कुराना

कुछ समय भी हो मेर लिए, और जायका भी वफादारी का
छिछोरा बिलकुल न हो, मस्ती के मिर्च से फिर छौंक देना

सच्चा जिसका रंग हो, नफरत से थोडा तंग हो
लालच का तेल नहीं, संतोष के घी में उसे पकाना

महत्वाकांक्षा का तत्व हो और बुद्धिमानी का मसाला
अनुभव की धीमी आंच पर उसे धीरे-धीरे सीझाना

पाचन कमजोर होने पर भी जो पेट को ना सताए
अनदेखा करे मेरी कमी को, ऐसा क्षमा का रस मिलाना

मेहनत का नमक हो, ईमानदारी की चमक हो
भाई से जो कम न लगे, ऐसा सुगंध अपनेपन की फैलाना

वेटर मुस्कुराया और बोला, ऐसे आर्डर में तो टाइम लगता है
आजकल जो जल्दी बन जाए, वो मतलब का फास्ट-फ़ूड चलता है

ढोंग की चासनी में सराबोर, ऊपर से प्रपंच की वो छौंक
पोषण रत्तीभर भी नहीं, जिसे खाकर पेट जलता है

बार-बार खाकर भी जिसे बिलकुल भी मन न भरे
कभी लालच की अपच करदे, तो कभी फरेब का डकार बनता है

आर्डर अगर ये ले आऊं तो फास्ट-फ़ूड कभी न खा पाओगे
झुण्ड से भी निकाले जाओगे, यही इसका दाम लगता है

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