माँ !
सामने तेरे जब भी आऊं, खुद को बच्चा ही पाता माँ !
बड़ा होने का ढोंग मगर, क्यूँ सब से करना पड़ता है
मंदिर न जाने पर मुझको, हर कोई नास्तिक कहता माँ !
पर तेरे पैर जो छूता हूँ, तो क्यूँ न कोई समझता है
जब मुझको अक्षर-ज्ञान कराया, तब तुम ब्रह्मण का रूप थी,
लड़ना बुराई से जो सिखाया, तो वो क्षत्रियता की धुप थी,
वणिक गुण ही उसे जानूं मैं, चवन्नी तक का हिसाब मिलाना,
शुद्र कर्म से अलग वो कैसे, मुझको सुबह नहलाना-धुलाना,
हम सबमें चारों वर्ण का लक्षण, तुझसे ही मैंने सीखा माँ !
सदियों पुराना गलत विभाजन, आज भी पर क्यूँ चलता है
मंदिर न जाने पर मुझको, हर कोई नास्तिक बोले माँ !
पर तेरे पैर जो छूता हूँ, तो क्यूँ न कोई समझता है
मेरा हिस्सा सबसे पहले, मेहमान जब भी लाये मिठाई,
कुर्सी पंखा मेरे जिम्मे, दिवाली में जब घर की सफाई,
मेरे लिए रोज बचाकर, गुड़ के साथ मलाई खिलाना,
मीठी सी उस झिड़क के संग, कभी कभी झापड़ भी लगाना,
रूचि और अरुचि वो मेरी, बिन बोले तुमको मालूम माँ !
कुछ तो खुद भी भूल गया मैं, तुम्हें ही बताना पड़ता है
मंदिर न जाने पर मुझको, हर कोई नास्तिक बोले माँ !
पर तेरे पैर जो छूता हूँ, तो क्यूँ न कोई समझता है
नमक लेने उस दिन जो निकली, ये क्यों नहीं बताया था
छुट्टे देख लड्डू खाने को, मैं कितना रोया था चिल्लाया था
एक न मानी तेरी फिर भी, आशीर्वाद ही देती तू
सब बोलें सिरचढ़ा मुझे पर, अच्छा-प्यारा ही कहती तू
उलझन गहरे इतने मन में, फिर भी कुछ नहीं जताती माँ !
तुच्छ दुःख हर बार ये मेरा, पर तेरे ही आगे उमरता है
मंदिर न जाने पर मुझको, हर कोई नास्तिक बोले माँ !
पर तेरे पैर जो छूता हूँ, तो क्यूँ न कोई समझता है
थककर चूर जब सोने जाता, पैरों में वो तेल की मालिश
तौलिये से बालों को सुखाना, स्कूल से आते जो हुई थी बारिश
बचपन में बड़े होने का, वो जिद कितना बचकाना था
आज जाके जो जाना मैं, तूने तब से पहचाना था
चिडचिडा हूँ अभी भूख के कारण, बस तू ही ये समझे माँ !
दृष्टि क्षय हो जाने पर भी, मुझसे ज्यादा तुझे दिखता है
मंदिर न जाने पर मुझको, हर कोई नास्तिक कहता माँ !
पर तेरे पैर जो छूता हूँ, तो क्यूँ न कोई समझता है
सार्थक व मूल्यवान रचना !
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