कब मैंने बोला ..
एक आस जो लेकर जीता हूँ , तो तुम क्यों घबरा जाते हो
कब मैंने ऐसा बोला है , कि आकर इनको सच कर जाना
मैं तो सहरा , सदियों से प्यासा
गंगा को क्या मैं जानूंगा
छोटी सी एक बावरी को भी
सागर से बढ़कर मानूंगा
देना न देना तुम्हारी मर्जी ,
पर चाहने पर किसी का जोर नहीं
फिर मेरी दो घूँट कि आशा
क्यों सबको सताती है इतना
मुझसे मेरी प्यास न छीनो, और न इसका इल्जाम ही दो
कब मैंने बोला गंगा से कि , प्यास मेरी बुझा जाना
मन बच्चा है , बहक जाता
बहल भी जायेगा , ऐसे ही
आज हिचकता है , आंसू बहाता
संभल भी जायेगा , ऐसे ही
अपनी बात पर खरा उतरता तो ,
उम्मीद भी रखता , वैसा ही
तभी रोता है जब ये समझ जाता
कि वो बात कही थी तुमने , ऐसे ही
आज मेरी पुकार को सुन , क्यों तुम पीछे हट जाते हो
कब मैंने ऐसा बोला कि , बिसरे बातों को निभा जाना
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