एक लड़की.......
इक दोस्त, इक पहेली वो
जितनी चंचल, उतनी अकेली वो
हँस-हँसकर झुठलाती है
सबकुछ मुझसे छुपाती है
दिल उसका एक दोराहे पर
अनजान है आगे का सफ़र
अन्दर से बहुत डरी है वो
फिर भी हिम्मत से खड़ी है वो
एक द्वन्द से मन जूझ रहा
बचपन से जो है सबने कहा
मान रहे हैं, मानेंगे आगे भी
पर मेरा चाहा वो जानेंगे कभी?
बचपन से मुझे पढाया क्यों ?
स्वतंत्र विचार बनाया क्यों?
जब आज अलग कुछ सोचूं तो
इतनी दिक्कत होती है सबको
और आगे तो बढ़ सकती हूँ
जो चाहूं वो कर सकती हूँ
पर माँ-बाबा का वो चेहरा
देता हर पल दिल पर पहरा
अब समझ नहीं कुछ आता है
कोई बचाने क्यों नहीं आता है?
जो हाथ पकड़ ले जाये मुझे
हर फ़िक्र दुःख से बचाए मुझे
जिसे पकड़ के दम भर रो लूँ मैं
फिर साड़ी मजबूरी भूलूँ मैं
एक दिन आकर मुझे बचाएगा
कब तक रुकेगा, वो आएगा
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें