यूँ इतराता फिरू मैं....
क्यूँ बन गया नौकर तो, यूँ इतराता फिरू मैं
अब भर गया जो पेट तो, न मन की सुनूँ मैं
चाकरी तो चाकरी, फिर क्या अच्छा क्या बुरा
सब ताख पर जब रखकर, बस चारा चरुं मैं
कुछ आगे बढ़ चुके हैं, जो छुटे पीछे भागें
बेफिक्र चलने वालों से, क्यूँ बात करूँ मैं
अब आह भी न सुनते, अब वाह भी न करते
बस एक राह चलते-चलते, ये उम्र भरूँ मैं
ऐसी भी लत क्या उनकी, जो छूटने न पाए
जीते जी जीने की जब, यूँ छोड़ रहूँ मैं
प्यासे भी कुछ हैं ऐसे, पानी में हर पल रहते
पर जान नहीं पाते, क्या उनसे कहूँ मैं
खीर में नमक और बाकी थाली पूरी खाली
जिंदगानी की कहानी, और कैसे कहूँ मैं
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