डेढ़ घंटे !!!
बीते जमाने में तो, हँसते थे मिलके सबसे
संग खेलने को उनके, बहाने नए बनाके
बापू से छुप-छुपाके, अम्मा से गिडगिडाके
आकर देर तक पढूंगा, भरोसा ये दिलाके
डेढ़ घंटे की आज़ादी, थी जान से भी प्यारी
जब खेलते थे जीभर, जमती थी अपनी यारी
वैसा ही डेढ़ घंटा, बरसों बीते पर न आता
हुए बहुत दिन अब मुझे कोई यार न बनाता
क्रिकेट में वो बीती शामें, जब ख़ुशी से बल्ला थामे
निकलती थी अपनी टोली, दीवाली हो या हो होली
गेंद-बल्ला के होते, एक मौका हम न खोते
त्यौहार भी मनाते, पर डेढ़ घंटा न गंवाते
पंडितजी की वो झिडकी, गेंद उनके घर जो जाये,
थोड़ी देर को थमे सब, अब वापस कौन लाये
जिसने था शॉट मारा, थी उसकी जिम्मेदारी
उस वक़्त संग गया जो, पक्का यार बन गया वो
उस डेढ़ घन्टे में तो, झगडे भी खूब होते
ऐसे भी दिन गए कुछ, लौटे जब रोते रोते
सबने लाख समझाया, करते हो रोज वक़्त जाया
अब से खेल बंद करो तुम, अव्वल दरजे के बनो तुम
कुछ करके है दिखाना, तो अपनी संगति सुधारो
अब ज्यादा तुमको पढना, खेल-कूद को बिसारो
उस डेढ़ घंटे की पढाई, ने एक रोजी भी दिलाई
पर यारी जो तबसे छूटी, ताउम्र मुझसे रूठी
अब सोच में पड़ा हूँ, कैसे भूल है हुई ये
गए जो डेढ़ घंटे, हुई हलकी जिन्दगी ये
था हिसाब जो लगाया, चौबीस से डेढ़ कम आया
पर इतने दिन तो बीते, चुकने पाया न बकाया
जो स्कूल में पढ़ाया, गणित काम नहीं आया
हिसाब जिन्दगी का अबतक, किसी ने नहीं सिखाया
उस डेढ़ घंटे की कीमत, जिंदगी ने यूँ लगाया
इतने साल अब तो बीते, किसीने यार न बनाया
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